Monday, 19 February 2024

महाभारत श्री. कृष्ण सार: निर्णय- भविष्य- सु:ख - दुःख - भाग ३

                                                                          भाग ३

                महाभारत श्री. कृष्ण सार: निर्णय- भविष्य- सु:ख - दुःख

                        श्री कृष्णके मधुर बोल एवम वचन - SHREE KRISHNA SEEKH भाग -




!! जीवन का हर क्षण निर्णय का क्षण होता है !! प्रत्येक पद पर दुसरे पद के विषय में कोई निर्णय करना ही पडता है !! और निर्णय, निर्णय प्रभाव छोड ही जाता है !! आज किये गये निर्णय भविष्य में सुख अथवा दुःख निर्मित करते है !! ना केवल अपने लिये, अपने परिवार के लिये भी, आणेवाली पिढी के लिये भी, जब कोई दुविधा सामने आती  है !! तो मन व्याकुल हो जाता है !! अनिश्च्यय से भर जाता है !! निर्णय का वो क्षण युद्ध बन जाता है !! और मन बन जाता है युध्दभुमी !! अधिकतर निर्णय हम दुविधा का उपाय करने के लिये नहीं, केवल मन को शांत करने के लिये लेते है !!


                                         पर क्या कोई दोडते हुए भोजन कर सकता है ?

                                                                        नहीं.


                           तो क्या युद्ध से झुजता हुआ मन कोई योग्य निर्णय ले पायेगा ?




वास्तव में शांत मन से जब कोई निणर्य करता है !! तो अपने लिये सुखद भविष्य बनाता है !! किंतु अपने मन को शांत करने के लिये जब कोई निर्णय करता है, तो वो व्यक्ती भविष्य में अपने लिये काटो से भरे वृक्ष लगाता है !!


                                                     !!! स्वयंम विचार किजीये !!!


मुझे नयी धारावाहिक स्टार प्लस पर नये सिरे से प्रसारित कि गई महाभारत गाथा और इसमे से सारे पात्र उनके संघर्ष कि कहाणी पुन्हा पुन्हा सुनने का अवसर मिला. 

श्री. कृष्ण भगवान (सौरभ जैन जी उनका एक यादगार अजरामर किरदार ) उनके इस किरदार ने मुझपर कुछ ऐसा असर किया  कि मैने सारे महाभारत के एपिसोड पुन्हा पुन्हा सुनकर उसमे से मेरे सबसे अधिक प्रिय पात्र श्री. कृष्ण भगवान के लगभग सारे डायलॉग एक डायरी में लिख लिये ताकी जब भी कभी मुझे अकेलापण महसूस हो, मेरी सोच  नकारात्मकता से भर जाये तब मे श्री. कृष्ण भगवान के इन्ही मधुर बोल एवंम वचन को पढकर पुन्हा मेरी उर्जा एक जगह केंद्रित करके मेरे जीवन का लक्ष्य हासील कर सकू.  

बस यही विचार के साथ मेने मेरे अपने डायरी में लिखे वो सारे डायलॉग जो कि स्टार प्लस (Star plus) और  डिस्ने +  हॉट स्टार (Dinsey + Hotstar) पर १६ सप्टेंबर २०१३ से १६ ऑगस्ट २०१४ में प्रदर्शित कि गयी महाभारत  गाथा कि पेशकश हे उन्हे यहा पर पुन्हा एक बार जैसे शब्द है वैसे ही लिखणे कि कोशिश कि है.

सिद्धार्थ कुमार तिवारी और अन्य लिखित, अमोल सुर्वे, सिद्धार्थ, कुमार आनंद और अन्य द्वारा निर्देशित किये श्री. व्यास जीं कि महाभारत गाथा के श्री कृष्ण भगवान के मुख से निकले कुछ सवांद  यहा आपके लिये वापस एक बार

NO COPYRIGHT INFRIDGEMENT INTENDED. THE CLIPS, CONTENT AND AUDIO CREDIT GOES TO THEIR RESPECTIVE OWENRS. WE USED HERE FOR MOTIVATION KNOWLEDGE, SPRITUALITY PURPOSE.



Sunday, 11 February 2024

संतान - सुख, सुरक्षा उसका चरित्र और मनुष्य के कर्म भाग -२


                   संतान - सुख, सुरक्षा उसका चरित्र और मनुष्य के कर्म

मुझे नयी धारावाहिक स्टार प्लस पर नये सिरे से प्रसारित कि गई महाभारत गाथा और इसमे से सारे पात्र उनके संघर्ष कि कहाणी पुन्हा पुन्हा सुनने का अवसर मिला. 

श्री. कृष्ण भगवान (सौरभ जैन जी उनका एक यादगार अजरामर किरदार ) उनके इस किरदार ने मुझपर कुछ ऐसा असर किया  कि मैने सारे महाभारत के एपिसोड पुन्हा पुन्हा सुनकर उसमे से मेरे सबसे अधिक प्रिय पात्र श्री. कृष्ण भगवान के लगभग सारे डायलॉग एक डायरी में लिख लिये ताकी जब भी कभी मुझे अकेलापण महसूस हो, मेरी सोच  नकारात्मकता से भर जाये तब मे श्री. कृष्ण भगवान के इन्ही मधुर बोल एवंम वचन को पढकर पुन्हा मेरी उर्जा एक जगह केंद्रित करके मेरे जीवन का लक्ष्य हासील कर सकू.  

बस यही विचार के साथ मेने मेरे अपने डायरी में लिखे वो सारे डायलॉग जो कि स्टार प्लस (Star plus) और  डिस्ने +  हॉट स्टार (Dinsey + Hotstar) पर १६ सप्टेंबर २०१३ से १६ ऑगस्ट २०१४ में प्रदर्शित कि गयी महाभारत  गाथा कि पेशकश हे उन्हे यहा पर पुन्हा एक बार जैसे शब्द है वैसे ही लिखणे कि कोशिश कि है.

सिद्धार्थ कुमार तिवारी और अन्य लिखित, अमोल सुर्वे, सिद्धार्थ कुमार आनंद और अन्य द्वारा निर्देशित ये श्री. व्यास जीं कि महाभारत गाथा के श्री कृष्ण भगवान के मुख से निकले कुछ सवांद आपके लिये.  

                                                               श्री कृष्ण सार 

                  श्री कृष्णके मधुर बोल एवम वचन - SHREE KRISHNA SEEKH भाग -

                            संतान - सुख, सुरक्षा उसका चरित्र और मनुष्य के कर्म

  !! संतानो के भविष्य को सुख से भरणे का प्रयत्न करना याही हर माता- पिता का प्रथम कर्तव्य होता है !!

!! जिन्हें आप इस संसार में लाये, और जिनके कर्मो से ये जगत आपक भी परिचय पायेगा भविष्य में उनके               भविष्य कि सुख कि योजना करणे से अधिक महत्व और हो भी क्या सकता है !!

                                  किंतु सुख और सुरक्षा क्या ये मनुष्य के कर्म से प्राप्त नही होते. ?


माता - पिता के दिये हुए अच्छे या बुरे संस्कार, उनकी दि हुई योग्य अथवा अयोग्य शिक्षा क्या आज के सारे कर्मो का मोल नही.

                                         संस्कार और शिक्षा से बनता है मनुष्य का चरित्र.

                                                                    अर्थात 


!!! माता - पिता अपने संतानो का जैसा चरित्र बनाते है, वैसा ही बनता है उनका भविष्य, किंतु फिर भी अधिकतर माता- पिता अपनी संतानो का भविष्य सुरक्षित करने कि चिंता में उनका चरित्र निर्माण का कार्य भूल ही जाते है. !!!

                                                                    वस्तुतः 

!! जो माता- पिता अपने संतानो कि भविष्य कि चिंता करते है !! उनकी संतानो को कोई लाभ नही होता. !! किंतु जो माता- पिता अपने संतानो के भविष्य का नही उनके चरित्र का निर्माण करते है !! ऊन संतानो कि प्रशस्ती समस्त संसार करता है !!


                                                  !!! स्वयंम विचार किजीये !!!


NO COPYRIGHT INFRIDGEMENT INTENDED. THE CLIPS, CONTENT AND AUDIO CREDIT GOES TO THEIR RESPECTIVE OWENRS. WE USED HERE FOR MOTIVATION KNOWLEDGE, SPRITUALITY PURPOSE.

Tuesday, 24 October 2023

क्या इच्छा, आशा, अपेक्षा, आकांशा यही सब मानव समाज के चालक होते है ?

 

मुझे नयी धारावाहिक स्टार प्लस पर नये सिरे से प्रसारित कि गई महाभारत गाथा और इसमे से सारे पात्र उनके संघर्ष कि कहाणी पुन्हा पुन्हा सुनने का अवसर मिला. 

श्री. कृष्ण भगवान (सौरभ जैन जी उनका एक यादगार अजरामर किरदार ) उनके इस किरदार ने मुझपर कुछ ऐसा असर किया  कि मैने सारे महाभारत के एपिसोड पुन्हा पुन्हा सुनकर उसमे से मेरे सबसे अधिक प्रिय पात्र श्री. कृष्ण भगवान के लगभग सारे डायलॉग एक डायरी में लिख लिये ताकी जब भी कभी मुझे अकेलापण महसूस हो, मेरी सोच  नकारात्मकता से भर जाये तब मे श्री. कृष्ण भगवान के इन्ही मधुर बोल एवंम वचन को पढकर पुन्हा मेरी उर्जा एक जगह केंद्रित करके मेरे जीवन का लक्ष्य हासील कर सकू.  

बस यही विचार के साथ मेने मेरे अपने डायरी में लिखे वो सारे डायलॉग जो कि स्टार प्लस (Star plus) और  डिस्ने +  हॉट स्टार (Dinsey + Hotstar) पर १६ सप्टेंबर २०१३ से १६ ऑगस्ट २०१४ में प्रदर्शित कि गयी महाभारत  गाथा कि पेशकश हे उन्हे यहा पर पुन्हा एक बार जैसे शब्द है वैसे ही लिखणे कि कोशिश कि है.

सिद्धार्थ कुमार तिवारी और अन्य लिखित, अमोल सुर्वे, सिद्धार्थ कुमार आनंद और अन्य द्वारा निर्देशित ये श्री. व्यास जीं कि महाभारत गाथा के श्री कृष्ण भगवान के मुख से निकले कुछ सवांद आपके लिये.  

                                                               श्री कृष्ण सार 

                                     श्री कृष्णके मधुर बोल एवम वचन - भाग -१

                इच्छा, आशा, अपेक्षा, आकांशा यही सब मानव समाज के चालक होते है ! 

                                                                    नही ?



                                               यदि कोई आप से पुछे, की आप कौन है ? 

                                                       तो आपका उत्तर क्या होगा ..?

                     आप तुरंत ही ये  जान जाएगें की आपकी इच्छाये ही आपके जीवन कि व्याख्या है.

                   कुछ पाने से मिली सफलता कुछ ना पाने से मिली निष्फलता ही आपका परिचय है 

अधिकतर लोग ऐसे जीते है, की स्वयंम भीतर से मरते रेहते है लेकिन अपनी इच्छाओ को नही मार पाते.

                        इच्छाए उन्हें दोडाती है, जिस प्रकार म्रिकृष्णा मृग को दौड़ाती है।  

                                परंतु इन्ही इच्छाओ कि गर्भ में ज्ञान का प्रकाश भी है. 

                                                                    कैसे ..?

जब इच्छाये अपूर्ण रहती है, तुटती है, तब वहिसे ही ज्ञान की किरण प्रवेश करती है मनुष्य के हृदय में.

                                                                     ना

                                                            ये कथा नहीं है 

                                                 केवल इच्छाओं के संघर्ष की, 

                नही है केवल महत्वाकांशाओ से जन्म लेने वाले भयावह रक्तपात की, ये कथा है, 

                                        इच्छाओं के गर्भ से उदित होते हुए ज्ञान की।


                    मै वासुदेव कृष्ण आप सभी को निमंत्रण देता हूँ। इस यात्रा पे चलने का.

                                जीवन का मर्म सिखायेगी, मनुष्य का धर्म सिखाएगी, 

                                   किचड से उठकर कमल बनने का कर्म सिखाएगी. 


                                                    और इस यात्रा का नाम 

                                                        !!! "महाभारत" !!!


NO COPYRIGHT INFRIDGEMENT INTENDED. THE CLIPS, CONTENT AND AUDIO CREDIT GOES TO THEIR RESPECTIVE OWENRS. WE USED HERE FOR MOTIVATION KNOWLEDGE, SPRITUALITY PURPOSE.






Sunday, 29 May 2022

प्राचीन केदारनाथ मंदिर - ४०० वर्ष बर्फाखाली दडलेले - प्रलयाने घेरलेले आणि तरीही स्थिर उभे असलेले हे मंदिर आणि त्याचे न उलगडलेले कोडे

 केदारनाथ मंदिर - अतिशय प्राचीन - शिवशंकर - महादेव यांच्या १२ ज्योतिर्लिंगापैकी एक उत्तराखंड मध्ये शिरावलेले- ४०० वर्ष्याहून अधिक काळ बर्फाखाली गाढले गेलेले आणि तरीही बांधकाम त्याचा पाया, साचा न ढळलेले असे हे अतिशय जुने प्राचीन मंदिर- येथे सर्व भाविकांची गर्दी हि कायम - जून २०१३ मध्ये आलेल्या प्रलया नंतरही अगदी दिमाखात उभे असलेले हे मंदिर. यावर आधारित २०१८ मध्ये केदारनाथ मुव्ही सुद्धा येऊन गेला. तेव्हा या मंदिराविषयी अलीकडेच वाचण्यात आलेला हा लेख पुन्हा एकदा आपल्यासाठी मी माज्या ब्लॉग वर प्रसिद्ध करत आहे.

 



केदारनाथ मंदीराच निर्माण कोणी केल ह्या बाबत अनेक गोष्टी सांगितल्या जातात. अगदी पांडवापासून ते आद्य शंकराचार्य पर्यंत. केदारनाथ मंदिर साधारण ८ व्या शतकात बांधल गेल असाव अस आजच विज्ञान सांगते. म्हणजे नाही म्हटल तरी हे मंदिर कमीत कमी १२०० वर्ष अस्तित्वात आहे. केदारनाथ जिकडे आहे तो भूभाग अत्यंत प्रतिकूल असा २१ व्या शतकातही आहे. एका बाजूला २२,००० फुट उंचीचा केदारनाथ डोंगर, दुसऱ्या बाजूला २१,६०० फुट उंचीचा करचकुंड तर तिसऱ्या बाजूला २२,७०० फुटाचा भरतकुंड. अश्या तीन पर्वतातून वाहणाऱ्या ५ नद्या मंदाकिनी, मधुगंगा, चीरगंगा, सरस्वती आणि स्वरंदरी. ह्यातील काही ह्या पुराणात लिहिलेल्या आहेत. ह्या क्षेत्रात मंदाकिनी नदीच राज्य आहे . थंडीच्या दिवसात प्रचंड बर्फ तर पावसाळ्यात प्रचंड वेगाने वाहणार पाणी. अश्या प्रचंड प्रतिकूल असणाऱ्या जागेत एक कलाकृती साकारायची म्हणजे किती प्रचंड अभ्यास केला गेला असेल. 



केदारनाथ मंदिर ज्या ठिकाणी आज उभ आहे तिकडे आजही आपण वाहनाने जाऊ शकत नाही. अश्या ठिकाणी त्याच निर्माण का केल गेल असाव? त्याशिवाय १००-२०० नाही तर तब्बल १००० वर्षापेक्षा जास्ती काळ इतक्या प्रतिकूल परिस्थितीत मंदिर कस उभ राहील असेल? हा विचार आपण प्रत्येकाने एकदा तरी करावा. जर पृथ्वीवर हे मंदिर साधारण १० व्या शतकात होत तर पृथ्वीवरच्या एका छोट्या आईस एज कालखंडाला हे मंदिर समोर गेल असेल असा अंदाज वैज्ञानिकांनी बांधला. साधारण १३०० ते १७०० ह्या काळात प्रचंड हिमवृष्टी पृथ्वीवर झाली होती व हे मंदिर ज्या ठिकाणी आहे तिकडे नक्कीच हे बर्फात पूर्णतः गाडल गेल असाव व त्याची शहनिषा करण्यासाठी वाडिया इंस्टीट्युट ऑफ जीओलोजी डेहराडूनने केदारनाथ मंदिरांच्या दगडांवर लिग्नोम्याटीक डेटिंग ही टेस्ट केली. लिग्नोम्याटीक डेटिंग टेस्ट हे दगडांच आयुष्य ओळखण्यासाठी केल जाते. ह्या टेस्ट मध्ये अस स्पष्ट दिसून आल की साधारण १४ व्या शतकापासून ते १७ व्या शतकाच्या अर्ध्यापर्यंत हे मंदिर पूर्णतः बर्फात गाडल गेल होत. तरीसुद्धा कोणतीही इजा मंदिराच्या बांधकामाला झालेली नाही. 



२०१३ साल केदारनाथ इकडे ढगफुटीने आलेला प्रलय सगळ्यांनी बघितला असलेच. ह्या काळात इकडे सरासरी पेक्षा ३७५% जास्त पाउस झाला. त्यानंतर आलेल्या प्रलयात तब्बल ५७४८ लोकांचा जीव गेला. ४२०० गावाचं नुकसान झाल. तब्बल १ लाख १० हजार पेक्षा जास्ती लोकांना भारतीय वायू सेनेने एअर लिफ्ट केल. सगळाच्या सगळ वाहून गेल पण ह्या प्रचंड अश्या प्रलयात केदारनाथ मंदिराच्या पूर्ण रचनेला थोडा धक्कापण लागला नाही.
 अर्किओलॉजिकल सोसायटी ऑफ इंडियाच्या मते ह्या प्रलयानंतर सुद्धा मंदिराच्या पूर्ण स्ट्रक्चर च ऑडीट मध्ये १०० पेकी ९९ टक्के मंदिर पूर्णतः सुरक्षित आहे. आय.आय. टी. मद्रास ने मंदिरावर एन.डी.टी. टेस्टिंग करून बांधकामाला २०१३ च्या प्रलयात किती नुकसान झाल आणि त्याची सद्यस्थिती ह्याचा अभ्यास केला. त्यांनी पण हे मंदिर पूर्णतः सुरक्षित आणि मजबूत असल्याचा निर्वाळा दिला आहे. दोन वेगळ्या संस्थांनी अतिशय शास्त्रोक्त आणि वैज्ञानिक पद्धतीने केलेल्या चाचण्यात मंदिर पास नाही तर सर्वोत्तम असल्याचे निर्वाळे आपल्याला काय सांगतात? तब्बल १२०० वर्षानंतर जिकडे त्या भागातल सगळ वाहून जाते. एकही वास्तु उभी रहात नाही. तिकडे हे मंदिर दिमाखात उभ आहे आणि नुसत उभ नाही तर अगदी मजबुत आहे. ह्या पाठीमागे श्रद्धा मानली तरी ज्या पद्धतीने हे मंदिर बांधल गेल आहे, ज्या जागेची निवड केली गेली आहे, ज्या पद्धतीचे दगड आणि संरचना हे मंदिर उभारताना वापरली गेली आहे त्यामुळेच हे मंदिर ह्या प्रलयात अगदी दिमाखात उभ राहू शकल आहे अस आजच विज्ञान सांगते आहे. 


हे मंदिर उभारताना उत्तर – दक्षिण अस बांधल गेल आहे. भारतातील जवळपास सगळीच मंदिर ही पूर्व – पश्चिम अशी असताना केदारनाथ दक्षिणोत्तर बांधल गेल आहे. ह्यातील जाणकारांच्या मते जर मंदिर पूर्व- पश्चिम अस असत. तर आधीच नष्ट झाल असत. किंवा निदान २०१३ च्या प्रलयात तर नक्कीच. पण ह्याच्या दिशेमुळे केदारनाथ मंदिर वाचल आहे. दुसरी गोष्ट म्हणजे ह्यात जो दगड वापरला गेला आहे तो प्रचंड कठीण आणि टिकाऊ असा आहे. त्यामुळेच वातावरणातील फरक तसेच तब्बल ४०० वर्ष बर्फाखाली राहिल्यावर पण त्याच्या प्रोपर्टीज मध्ये फरक झालेला नाही. त्यामुळे मंदिर निसर्गाच्या अगदी टोकाच्या कालचक्रात आपली मजबुती टिकवून आहे. मंदिरातील हे मजबूत दगड कोणतही सिमेंट न वापरता एशलर पद्धतीने एकमेकात गोवले आहेत. त्यामुळे तपमानातील बदलांचा कोणताही परिणाम दगडाच्या जॉइंट वर न होता मंदिराची मजबुती अभेद्य आहे. २०१३ च्या वेळी एक मोठा दगड पाठीमागच्या घळई मधून मंदिराच्या मागच्या बाजूला अडकल्याने पाण्याची धार ही विभागली गेली आणि मंदिराच्या दोन्ही बाजूने पाण्याने सगळ काही आपल्यासोबत वाहून नेल पण मंदिर आणि मंदिरात शरण घेतलेले लोक सुरक्षित राहिले. ज्यांना दुसऱ्या दिवशी भारतीय वायूदलाने एअर लिफ्ट केल होत. 



श्रद्धेवर विश्वास ठेवावा का नाही हा ज्याचा त्याचा प्रश्न. पण तब्बल १२०० वर्ष आपली संस्कृती, मजबुती टिकवून ठेवणार मंदिर उभारण्यामागे अगदी जागेची निवड करण्यापासून ते त्याची दिशा, त्याच बांधकामाच मटेरियल आणि अगदी निसर्गाचा पुरेपूर विचार केला गेला ह्यात शंका नाही. टायट्यानिक बुडाल्यावर पाश्चिमात्य देशांना एन.डी.टी. टेस्टिंग आणि तपमान कस सगळ्यावर पाणी फिरवू शकते हे समजल. पण आमच्याकडे तर त्याचा विचार १२०० वर्षापूर्वी केला गेला होता. केदारनाथ त्याच ज्वलंत उदहरण नाही का? काही महिने पावसात, काही बर्फात, तर काही वर्ष बर्फाच्या आतमध्ये राहून उन, वारा, पाउस ह्यांना पुरून उरत समुद्रसपाटी पासून ३९६९ मीटर वर ८५ फुट उंच, १८७ फुट लांबीच, ८० मीटर लांबीच मंदिर उभारताना त्याला तब्बल १२ फुटाची जाड भिंत आणि ६ फुटाच्या उंच प्लॅटफॉर्मची मजबुती देताना किती प्रचंड विज्ञान वापरल असेल ह्याचा विचार केला तरी आपण स्तिमित होऊ. आज सगळ्या प्रलयानंतर पुन्हा एकदा त्याच भव्यतेने १२ ज्योतिर्लिंग पेकी सगळ्यात उंचीवरच असा मान मिळवणार केदारनाथ च्या वैज्ञानिक बांधणीपुढे मी नतमस्तक.     

Sunday, 15 May 2022

लक्ष्मी देवीचा श्राप आणि आळस व कंटाळा यांची एक रंजक कथा

 

कधी तुम्हाला प्रश्न पडलाय का..? कि आपल्याला कधी कधी कामाचा, काहीही न करण्याचा खूप कंटाळा आणि आळस येतो. काहीही आणि कोणतेही काम करावेसे वाटत नाही. Life becomes  boaring. पण हे आळस आणि कंटाळा नक्की कोण आहेत. ते कसे दिसतात यांचा काही कुठे उल्लेख आहे का... तर या संदर्भात माज्या पप्पांनी त्यांच्या एका जुन्या वहिती १९९५ साली लिहिलेली एक मजेशीर फार फार जुनी अशी दंत कथा माज्या हल्ली वाचनात आली ती मी येथे आपल्याला ही वाचण्याची संधी देत आहे.  


खूप खूप वर्षांपूर्वीची ही गोष्ट आहे अपराजित नावाचा एक असूर होता. तो अतिशय पराक्रमी होता. कुणीही त्याला पराजित करू शकणार नाही असा वर त्यान प्रत्यक्ष भगवान शंकराकडून मिळवला होता. आपल्या पराक्रमाच्या जोरावर त्यानं पृथ्वी तर जिंकलीच, पण लवकरच त्याच लक्ष स्वर्गाकडे वळलं. आता त्याला स्वर्गाचं राज्यही हवंस वाटू लागलं. त्याला देवांचा राजा बनायच होत. 


स्वर्गावर वारंवार हल्ले चढवायला त्यानं सुरुवात केली. भगवान शंकराच्या वरामुळे अजिंक्य बनलेला तो राक्षस देवांना वरचढ ठरू लागला. शेवटी सारे देवगण श्रीविष्णूकडे आले. 


"देवाधिदेव, अपराजित राक्षसानं आमच जगण कठीण केलं आहे. भगवान शंकराच्या वरामुळे तो अजिंक्य ठरला आहे." सर्व देव म्हणाले, "त्याचा ताबडतोब काहीतरी बंदोबस्त करायला हवा, नाहीतर उद्या तो येथे विष्णुलोकावर चढाई करायलासुद्धा कमी करणार नाही." नारदमुनी म्हणाले. 


भगवान विष्णू झोपेतून नुकतेच जागे झाले होते. अजूनही त्यांच्यावर निद्रादेवीचा अमल होता. त्यांनी एक भली थोरली जांभई दिली आणि......... 


                त्या जांभईमधून दोन चमत्कारिक प्राणी बाहेर पडले. अगदी काळाकुट्ट रंग, फताडे पाय, बटबटीत डोळे आणि अतिशय गरीब भित्रा चेहरा !. 


"हे दोघ अपराजित राक्षसावर विजय मिळवतील." श्रीविष्णू म्हणाले. " तुमचं संकट हे दूर करतील." 


"हे दोघे ? हे अशक्त आणि विचित्र प्राणी ? अपराजित राक्षसावर विजय मिळवणार ?" देवांनी आश्चर्यान विचारलं, कोण आहेत हे ?''


   "आळस आणि कंटाळा !" भगवान विष्णूंनी हसत उत्तर दिले. " तुमची शस्त्र, अस्त्र, शौर्य, जे करू शकणार नाहीत ते हे दोघ नक्कीच करू शकतील."



   दोघांनी भगवान विष्णूंना नमस्कार केला. " भगवान आमचं हे रूप.. काळा रंग, बटबटीत डोळे, फताडे पाय... यांच्यामुळे राक्षसगण आम्हास जवळ करणार नाहीत."आळस म्हणाला. 


   " तथास्तु ! तुम्हाला सुंदर रूप मिळेल इतकेच नव्हे. तर तुमच्या मनात येईल तेव्हा तुम्ही अदृश्य देखील होऊ शकाल. जा. यशस्वी होऊन या !" भगवान विष्णूंनी त्यांना वरदान दिले.


अतिशय देखणं रूप मिळालेले आळस आणि कंटाळा हळूच राक्षस सेनेत शिरले. त्यांच्या रूपावर, गोड बोलण्यावर बेहद्द खूष झालेले सैनिक त्यांच्या म्हणण्याप्रमाणे वागू लागले. 


"तुम्ही काम करू नका !" आळस म्हणे. " काम करून काय मिळणार आहे ? शरीराला त्रास फक्त."


कंटाळा म्हणे, " आमच्याकडे बघा आम्ही कसे सुंदर आहोत ! गोरापान रंग ! सुंदर डोळे, कुरळे, काळेभोर केस ! तुमच्यासारख उन्हातान्हात फिरत असतो तर आम्ही काळे, आक्राळ, विक्राळ झालो असतो. तुम्हीसुद्धा आराम करा, आरामानं शरीर सुखी आणि सुंदर बनतं."


सारी राक्षस सेना हळूहळू आळस आणि कंटाळा यांच्या नादी लागली. त्यांच गोड गोड बोलणं त्यांना ऐकायला आवडे, फार काय प्रत्यक्ष अपराजित राक्षसाने बोलावलं तरी ते सांगत, "आता नको, नंतर येऊ, आमच्याकडं आळस आलाय आणि कंटाळापण आलाय."


अपराजित राक्षसाला या गोष्टीच आश्चर्य वाटू लागलं, प्रत्यक्ष राजाची आज्ञा पाळायला दुर्लक्ष करतात हे सैनिक ? केवळ त्या दोघांमुळे ? कोण आहेत हे आळस आणि कंटाळा ?


"आळस आणि कंटाळा यांना बोलावून आणा !" अपराजित राक्षसानं हुकूम दिला. ते दोघेही राक्षस राजासमोर हजर झाले. त्यांना पाहून, त्यांच बोलणं ऐकून राजा इतका खूष झाला, कि त्यान त्यांना आमच्या आमच्या महालात ठेवून घेतलं. 


      लवकरच राक्षस सेनेत आळस आणि कंटाळ्यानं धुमाकूळ घातला. आळसामुळं कुणी काहीही करेनासं झालं, कंटाळ्यानं तर सगळ्यांनाच आपल्या ताब्यात घेतलं, शस्त्र, अस्त्र, गंजली, लढाई करायचंसुद्धा सैनिक विसरून गेल. आणि अचानक देवसेनेने हल्ला चढवला, अपराजित राक्षस राजाला देवसेनेने बंदी बनवलं. देवलोकांवरच संकट दूर झालं. सर्वत्र आनंदीआनंद झाला. आळस आणि कंटाळा यांनी जी कामगिरी केली होती त्याचे सर्वत्र कौतुक होऊ लागल. 


      पण याचा परिणाम उलटाच झाला. आळस आणि कंटाळा स्वतःला श्रेष्ठ समजू लागले. जी गोष्ट देवांना जमली नाही ती आपण केली याचा त्यांना गर्व झाला. आपल्याला हवं ते आपण मिळवू शकतोअसं त्यांना वाटू लागलं. आपण खरं म्हणजे देवाहुनही श्रेष्ठ आहोत असा त्यांचा समज झाला. 


    " हे देव अमृत पितात. त्यामुळे ते अमर झाले आहेत. आपणही अमृत प्यायला हवं, आपल्यालाही अमरत्व मिळेल. मग आपल्याला कोणीही काहीही करू शकणार नाही." आळस म्हणाला. 


     "पण आपल्याला अमृत मिळणार कसं ? ते तर देवी लक्ष्मीच्या ताब्यात असत." कंटाळा म्हणाला. " 


     "अं, त्यात काय आपल्याला अदृश्य पण होता येत. आपण अदृश्य राहून अमृत पिऊया .... !" आळस म्हणाला.  


     आणि दोघेही लक्ष्मीदेवीच्या महालात शिरले, अमृत कलशामधून अमृत काढून दोघेही अमृत पिऊ लागले. त्याच क्षणी देवीचं त्यांच्याकडे लक्ष गेलं. 


     "कोण आहे ते अमृत कलशापाशी तिन विचारलं.. ?

  

    दोघांनीही उत्तर दिले नाही, कि ते प्रकटही झाले नाहीत. 


   क्षणातच देवी लक्ष्मीनं त्यांना ओळखलं. " आळस आणि कंटाळा मी तुम्हा दोघांनाही ओळखलं आहे ताबडतोब प्रकट व्हा !" ती म्हणाली. 


 तरीही दोघंजण अदृश्यच राहिले. तास देवीचा संताप वाढला. " प्रत्यक्ष माज्या ताब्यात असलेल्या अमृत कलशातील अमृत तुम्ही प्यायलात. मी दिलेली आज्ञा तुम्ही पाळली नाहीत." देवी संतापानं म्हणाली. " यानंतर तुम्ही स्वर्गलोकात राहू शकणार नाहीतआणि यापुढं तुम्हाला कधीही दृश्य स्वरूपात येत येणार नाही. तुम्ही कायम अदृश्य रहाल." असा देवीने त्यांना शाप दिला. 

  

    आणि आळस आणि व कंटाळा मानवलोकात पृथ्वीवर आले. अमृत प्यायल्यामुळे ते अमर झाले आहेत खरे पण त्या अमरत्वाचा त्यांना काहीही उपयोग झाला नाही ते कोणालाही दिसूच शकत नाहीत. 


मात्र जिथं आळस आणि कंटाळा असतील तेथे देवी लक्ष्मी त्यांना बरोबर ओळखते आणि जिथं ते दोघे असतील त्या घरातून ती बाहेर पडते. आळस व कंटाळा मात्र लक्ष्मीला शोधत घराघरात हिंडत आहेत. त्यांना वाटत कधीतरी ती आपल्याला क्षमा करेल आणि आपण दृश्य स्वरूपात येऊ. 


 पण लक्ष्मीनं स्पष्टच सांगितलं आहे, " आळस आणि कंटाळा यांना क्षमा नाही. जिथं ते आहेत तिथं मी नाही." 


                                 "समाप्त"  

                                                                        - भालचंद्र केशव जगताप (माझे बाबा)

                                                                                                     १२.०२.१९९५

Saturday, 14 May 2022

नामस्मरणाचे महत्व

 

 



विचार - सकारात्मक, आचार (आचरण) - शुद्ध, आहार - सात्विक व विहार सत्संग (चांगल्या लोकांची संगत) या चार गोष्टी जर माणसाने आचरणात आणल्या, तर त्याच जीवन आनंदी होईल. पण हे वाटत तेवढं सोपं नाही आणि हे जर सोपं करायचं असेल तर आपण थोर संतांनी दाखवलेला मार्ग स्वीकारला पाहिजे. ज्ञानेश्वर महाराजांनी अध्यात्मनिष्ठेला अग्रस्थान दिले आहे. त्यासाठी तुम्हाला बुद्धीचा वापर करणे अग्रेसर आहे. 

 

बुद्धी हे आत्मा व जीव यांच्यातील दुवा आहे. सुख-दुःख, पाप-पुण्य, खरे-खोटे, यांचा निवडा करणे हे बुद्धीचे काम आहे म्हणून आपण परमेश्वराला नेहमी म्हणत असतो 


                                  " देवा मला सद्बुद्धी दे "

 

बुद्धी, मन आणि शरीर एकरूप झाल्याशिवाय परमार्थ साधता येत नाही. मन हे चंचल असते ते कुठे वाहत जाईल ते सांगता येणार नाही, म्हणून त्याला सन्मार्गाकडे वळविले पाहिजे. बुद्धीच्या स्थैर्यासाठी भक्ती मार्गाचा अवलंब केला पाहिजे. भक्ती ही अंतःकरणापासून केली पाहिजे. भजन-पूजन कितीही केले पण जर त्याला अध्यात्माची जोड नसेल तर ते वायफळ जाते. अध्यात्मामुळे मनुष्याच्या कर्माला डोळसपणा येतो त्याला दिव्यदृष्टी प्राप्त होते. तो मायाजालातून मुक्त होतो आणि परमेश्वराला एकरूप होतो.

ज्ञान आणि भक्ती कशी आत्मसात करावी हे ज्ञानेश्वरीच्या १३ व्या अध्यायात स्पष्ट केले आहे. ज्ञानाची लक्षणे ज्ञात झाली कि, मन परमेश्वर चरणी आपोआप लीन होते. तो नामस्मरणात रमतो त्याला परमेश्वर प्राप्ती चा सुलभ मार्ग सापडतो. त्यासाठी हिमालयात तप करायची गरज नाही किंवा चारधाम यात्रा करण्याची गरज भासत नाही, त्याला एकाच ओढ असते ती पंढरपुरची : 

           !! जेव्हा नसते चराचर !! तेव्हा होते पंढरपूर !!

        !!  जेव्हा नव्हत्या गंगा यमुना !! तेव्हा होती चंद्रभागा !!   


हरिनामाच्या उच्चारामुळे जे पुण्य लाभते त्याची गणना होत नाही. त्याच्या दारात क्षणभर जरी उभे राहिलात तरी त्याला मुक्ती मिळते. 


!! देवाचिये दारी उभा क्षणभरी !! तेणे मुक्तिचारी साधिलिया !! 

!! हरी मुखे म्हणा हरी मुखे म्हणा पुण्याची गणना कोण करी !!

!! असोनी संसारी जीव्हे वेगु करी !! वेदशास्त्र उभारी बाह्य सदा !!

!! ज्ञानदेवो म्हणे व्यासाचिये खुणे !! द्वारकेचे राणे पांडवां घरी !!  


नामस्मरण हे भक्ती करण्याचे सोपे साधन आहे; कारण नामस्मरण हे नित्य कर्म साधताना साधता येते. त्याला वेळ व काळाचे नियम नाहीत. त्यासाठी तासंतास मंदिरात बसावे लागत नाही, पण याचा अर्थ असा होत नाही कि मंदिरात जाऊच नये. मंदिरात आरती, भजन, कीर्तन असे उपक्रम चालूच असतात. त्यामुळे मन एकाग्र होण्यास मदत होते. मनाचा चंचलपणा कमी होऊ लागतो. काम - क्रोध - लोभापासून ते दूर जाऊ लागते. सर्व व्यसनांना ते दूर लोटते आणि याचा परिणाम निश्चितच शरीरावर होतो. माणसात बदल होऊ लागतो. सर्वांविषयी मनात प्रेमभावना निर्माण होते. समाजात प्रतिष्ठा लाभू लागते. सत्संगामुळे आणि वाचनामुळे बुद्धी वृद्धिगंत होते. तिचा विस्तार आकाशाएवढा होतो आणि विचार करणायचा दृष्टीकोनच बदलून जातो, सृष्टीचे खरे सौदंर्य जे आधी कधी पाहू शकत नव्हता ते पाहू शकतो विश्वाकडे बघण्याची दिव्यदृष्टी त्याला प्राप्त होते. 


!! हे विश्वाची माझे घर !! ऐसी माती ज्याची स्थिर !!

     !! किंबहुना चराचर !! आपण झाला !!


ज्ञानदेवाने या लहानशा ओवीत आपली देवाविषयीची संकल्पना सांगितलेली आहे. या विश्वव्यापक देवाची भक्ती करायची तर भक्तानेही विश्वव्यापक व्हायला हवे.  कारण त्याशिवाय त्याला परमेश्वराचे खरे स्वरूप कळणार नाही. माणसाचे आयुष्य हे त्याला मिळालेला एक अनमोल ठेवा आहे. 


सोन्यासारख्या आयुष्याचा नाश करू नका, सुख आपल्या दारात उभे आहे त्याला पारखे होऊ नका व दुःखाला आमंत्रण देऊ नका. या सर्व गोष्टींचा अर्थ एकच कि आचार, विचार, आहार आणि विहार हा मंत्र विसरू नका. आज इन्फोर्मेशन टेक्नोलॉजी, इंटरनेट, ई-मेल, टीव्ही, मोबाईल या माध्यमामुळे जग जवळ आले आहे, मात्र मनुष्य एकमेकांपासून दूर जात चालला आहे. नवीन पिढी चपळ आहे, चंचल आहे आणि व्यसनाधीन सुद्धा. व्यसनासाठी कुठल्याही मार्गाने जाण्याची त्यांची तयारी असते आणि अध्यात्मच यातून तारू शकते. 


सर्वप्रथम आपण आपल्यावर (स्वतःवर) प्रेम करायला शिका. आपल्या मुलांवर, कुटुंबावर प्रेम करायला शिका. सभोवतालच्या जगावर, सृष्टीवर प्रेम करायला शिका म्हणजे हे जग, हे विश्व आपले वाटू लागेल त्यात दडलेला विठ्ठल तुम्हाला दिसू लागेल त्याच्या सर्वांगसुंदर रुपाला पाहून तुम्हाला आनंद मिळेल. 

                                             -बबनराव पाचपुते

                                             -राज्याचे वनमंत्री

                                             -०५-०५-२००८ 

(हा लेख एका वर्तमान पत्रामध्ये श्री. बबनराव पाचपुते यांनी प्रसिद्ध केला होता. हे त्यांचे मनोगत असून त्यावेळी ते राज्याचे वनमंत्री होते आणि हा लेख खूप जुना आहे. )





Thursday, 30 July 2020

गोष्ट सहनशीलता आणि सहिष्णुतेची


गोष्ट सहनशीलता आणि सहिष्णुतेची

मस्त गोष्ट आहे कदाचित तुमच्या ऐकण्यात किंवा वाचनात आली असेल...




एका बेडकाला कोमट पाण्यात ठेवण्यात आले. अपेक्षा होती की बेडूक टुणकन उडी मारून बाहेर येईल.

पण तसे काही झाले नाही. मग हळू हळू ते पाणी गरम करण्यात येऊ लागले.

जसजसे पाण्याचे तापमान वाढू लागले, आतातरी बेडूक टुणकन उडी मारून बाहेर येईल असे वाटू लागले. पण तसे काही घडेना

शेवटी पाणी उकळू लागले तरी पण बेडूक बाहेर येईना. शेवटी त्या बेडकाला जेव्हा उकळत्या पाण्यातून बाहेर काढले तेव्हा तो बेडूक मेलेला आढळला.

तुम्हाला वाटेल की बेडूक उकळत्या पाण्यामूळे भाजून मेला.

पण तसे नव्हते...!!!



पाण्याच्या तापमानाप्रमाणे आपल्या शरीराचे तापमान ऍडजेस्ट करायची एक खास देणगी बेडकाला मिळाली आहे.

कारण बेडूक ज्या पाण्यात रहातो त्याचे तापमान नेहमीच कमी जास्त होत असते. बेडकाला कोमट पाण्यात टाकल्यावर बेडकाने आपल्या शरीराचे तापमान पाण्याच्या तापमानाप्रमाणे ऍडजेस्ट करायला सुरवात केली.

पुढे जस जसे पाण्याचे तापमान वाढू लागले बेडकाने तोच प्रयोग चालु ठेवला. पण यामध्ये बेडकाची बरीच ताकद खर्च झाली.

ज्यावेळी पाणी उकळू लागले व बेडकावर टुणकन उडी मारून पाण्याबाहेर पडण्याची वेळ आली तेव्हा उडी मारायला बेडकाकडे ताकदच शिल्लक राहीली नाही.

त्यामुळे बेडकावर मरण ओढवले. जर ज्या वेळी ताकद होती त्यावेळी बेडूक उडी मारून बाहेर पडला असता तर नक्कीच वाचला असता.

आपले पण असेच असते. आपण अनेकवेळा संकटे, अडथळे, अडचणी, दुःख, उदासीनता, स्वप्नभंग, निराशा यामूळे वेढले गेलेलो असतो. तसेच आपल्याला पुष्कळवेळा आपल्याला कमी लेखणारी, आपला अपमान करणारी, आपले शारिरीक, मानसीक, भावनीक व आर्थिक शोषण करणारी माणसे भेटत असतात.

अशा परिस्थितीला व माणसांना तोंड देण्यासाठी निसर्गाने आपल्याला एक आगळी वेगळी शक्ती बहाल केली आहे. ती म्हणजे सोशीकता, सहन करण्याची ताकद किंवा सहिष्णुता. आपण नेहमीच आलेल्या परिस्थितीला ऍडजेस्ट व्हायचा प्रयत्न करत असतो.

उगीच कशाला वाकड्यात शिरायचे...; म्हणून आपल्याला जी वेडी- वाकडी माणसे भेटत असतात, त्यांच्याशी पण आपण ऍडजेस्ट करायचा प्रयत्न करत असतो.

खरे म्हणजे यातून लवकर सुटका कशी करून घेता येईल याचे मार्ग आपल्याला दिसत असतात व समजत पण असतात. पण सहिष्णुतेच्या नावाखाली आपण याकडे दुर्लक्ष करत असतो.

पण यामध्ये आपली बरीच ताकद खर्च होत असते हे आपल्याला कळत नसते. पण जेव्हा डोक्यावरून पाणी वाहू लागते व यातून आपली सुटका करून घेण्याची वेळ येते तेव्हा सुटका करून घेण्यासाठी लागणारी ‘एनर्जी’ च आपल्याकडे शिल्लक रहात नाही.

आपण मग त्यात कायमचे अडकून पडतो व "दैवाला" दोष देण्यापलीकडे फारसे काही करू शकत नाही.

सहनशिलता किंवा सहिष्णुता हा चांगला गुण आहे पण त्याचा अतीरेक झाला तर तो दुर्गुणच ठरतो.

गुणांचे सद्गुण व दर्गुण असे दोन प्रकार आहेत. पण अनेक वेळा दुर्गुण हे सद्गुण ठरत असतात; तर सद्गुण हे दुर्गुण ठरत असतात.

तुम्ही कोणालाही तुमचे शारिरीक, मानसीक, भावनीक व आर्थिक शोषण करू देऊ नका.

पाणी गरम होत असताना जोपर्यंत आपल्याकडे उडी मारून बाहेर पडण्याची ताकद आहे तोपर्यंत उडी मारून बाहेर पडणे शहाणपणाचे ठरते.

तात्पर्य : तुमच्याकडे असलेल्या सहनशीलतेचा किंवा सहिष्णुतेचा उपयोग कसा करायचा हे तुमचे तुम्हीच ठरवायचे

कावळ्याची गोष्ट माणुसकी शिकवणारी


कावळ्याची गोष्ट माणुसकी शिकवणारी




सुंदर बोधकथा आहे,

आवडल्यास
इतरांनाही सांगावी अशी .....

एक दिवस एक कावळा आणि त्याचा मुलगा झाडावर बसले होते.
कावळ्याचा मुलगा वडिलांना म्हणाला "मी आजपर्यंत सगळ्या प्रकारचे मांस खाल्ले... पण, दोन
पायांच्या माणसाचे मांस कधीच खाल्ले नाही.बाबा, कसा स्वाद असतो हो या दोन पायांच्या जीवाच्या मांसाचा?"

वडील कावळा म्हणाला "आजपर्यंत मी जीवनात ३ वेळा माणसाचे मांस खाल्ले आहे. खूपच चविष्ट असते ते!"
मुलगा कावळा लगेच हट्ट करू
लागला कि त्याला पण माणसाचे मांस खायचे आहे.
वडील कावळा म्हणाला, "ठीक आहे, पण थोडा वेळ वाट पहावी लागेल आणि मी जसे सांगेन तसे
तुला करावे लागेल. माझ्या वाडवडिलांनी मला हि चतुराई शिकवून ठेवली आहे ज्यामुळे आपल्याला खाणे मिळू शकेल." मुलगा कावळा "होय" म्हणाला.
त्यानंतर वडील कावळ्याने
मुलाला एका जागी बसवले व तो उडून निघून गेला आणि परत येताना मांसाचे २ तुकडे तोंडात
घेवून आला. एक तुकडा स्वतःच्या तोंडात धरला व दुसरा तुकडा मुलाच्या तोंडात दिला,
तुकडा तोंडात घेता क्षणी मुलगा म्हणाला, "शी बाबा, तुम्ही कसल्या घाणेरड्या चवीचे मांस
आणले आहे. असले खाणे मला नको."
वडील कावळा म्हणाला, "थांब,
तो तुकडा खाण्यासाठी नसून फेकण्यासाठी आहे. हा एक तुकडा टाकून आपण आता मांसाचे ढीग
तयार करणार आहोत. उद्या पर्यंत वाट बघ. तुला मांसच मांस खायला मिळेल आणि ते
सुद्धा माणसाचे."
मुलाला हे काही कळले नाही कि एका मांसाच्या तुकड्यावर मांसाचे ढीग कसे काय निर्माण होणार ?
पण त्याचा त्याच्या वडिलावर विश्वास होता. थोड्या वेळाने कावळा वडील एक तुकडा घेवून
आकाशात उडाला आणि त्याने
तो तुकडा एका मंदिरात टाकला आणि परत येवून दुसरा तुकडा उचलला व तो दुसरा तुकडा एका मशिदीच्या आत टाकला.

मग तो झाडावर येवून बसला.
वडिल कावळा मुलाला म्हणाला, "आता बघ उद्या सकाळपर्यंत मांस खायला मिळते कि नाही ते?"

थोड्याच वेळात सगळीकडे गलका झाला, ना कुणाला कुणाचे ऐकू येत होते, ना कोणी कोणाचे ऐकून घेत होते.

फक्त धर्म भावना विखारी झाली होती. धर्माच्या नावाखाली रक्ताच्या चिळकांड्या उडत
होत्या.... आई, मुलगा, बहिण, भाऊ, वडील, काका, शेजारी, मित्र असे कोणतेच नाते लक्षात न घेत फक्त धर्म बघून एकमेकांवर वार चालू होते.

आमच्या धर्माचा अपमान
झाला त्याचा बदला घेतलाच पाहिजे असे दोघेही म्हणत होते आणि यात निरपराध मारले जात
होते.

खूप वेळ यातच निघून गेला आताशा गाव शांत होवू लागले होते कारण रस्त्यावर फक्त आणि फक्त रक्तच सांडलेले दिसत होते. विशेष म्हणजे ते रक्त लाल रंगाचे
होते... त्यात कुठल्याच धर्माची छटा नव्हती. ते फक्त एकच धर्म पाळत होते ते म्हणजे प्रवाही पणाचा..

गांव निर्मनुष्य भकास झाले होते.... सर्वत्र भयाण शांतता पसरली होती.
या धुमश्चक्रीतून फक्त २ जीव सुटले होते ते म्हणजे झाडावरचे कावळे.
आता कावळ्याचे पोर माणसाची शिकार करायला शिकले होते.

कावळ्याच्या पोराने बापाला प्रश्न विचारला,
"बाबा, हे असेच नेहमी होते का?
आपण भांडणे लावतो आणि माणसाच्या लक्षात कसे येत नाही?"

कावळा म्हणाला, "अरे या मुर्ख माणसाना कधीच आपला धर्म कळला नाही. माणुसकी हा धर्म सोडून ते नको त्या गोष्टी करत बसले आणि आपल्यासारखे कावळे त्यांचा फायदा घेवून जातात, हे त्यांच्या लक्षातही येत नाही.
माणूस म्हणून जगण्यापेक्षा यांनी जात आणि धर्म यांचेच जास्त प्रस्थ माजविले आहे.आणि त्याचा गैरफायदा इतर तिसरे कोणी तरी घेवून जातात."
इतके बोलून दोघे बाप-लेक मांस खाण्यासाठी उडून
गेले.

Sunday, 2 December 2018

BE THE CEO OF YOUR OWN LIFE

दिनांक :- ०२-१२-२०१८

अप्रतिम लेख नक्की वाचा आणि वाचल्यानंतर जर तुम्हाला तुमच्या आयुष्यात काही बदल करावासा वाटला तर नक्कीच करा..

मी तर म्हणतो बघा वाचून एकदा हा लेख नक्कीच फरक पडेल तुमच्या आयुष्यात कदाचित हा लेख तुमच्या ही वाचनात याआधी आला असेलही तरीपण पुन्हा एकदा माज्या वाचनात आलेला हा लेख तुम्हा सर्वांसाठी :-


                                              !!! BE THE CEO OF YOUR OWN LIFE !!!




दोन दिवसापुर्वीची गोष्ट कुटुंबासह कुठल्यातरी मॉल मध्ये होतो. मुलगा 'प्ले झोन' मध्ये, सौ. (विन्डो) शॉपिंगमध्ये आणि मी एसीची छान गार हवा अंगावर घेत एका कोपऱ्यात पेपर वाचत बसलो होतो. पेपर खर तर नावाला. माणसं वाचत बसलो होतो. विविध चेहऱ्यांची, आकारांची माणसं जणू 'आज' जगाचा शेवटचा दिवस असावा' असे भाव आणुन शॉपिंग करत होती. (एवढ्या वस्तु विकत घेऊन त्या वस्तु माणसं घरात कुठे ठेवतात, हा मध्यम वर्गीय प्रश्न मला कायम सतावतो. असो.)


माझं 'माणसं-वाचन' चालु असतानाच माज्या शेजारी एक तरुण येऊन बसला. जेमतेम चाळीसीचा असावा. जीन्स आणि खोचलेला टी-शर्ट, पायात बुट, अंगावर बुट, हातात मराठी पुस्तक, खिशातला शुभ्र रुमाल काढुन त्याने कपाळावरचा घाम पुसला. रुमालाची (होती तशी) व्यवस्थित घडी घातली आणि त्याचं खिशात ठेवली. त्याच्या हालचाली शांत झाल्यावर त्याने पुस्तक उघडले. ते पुस्तक माज्या आवडत्यांपैकी एक होतं. न राहवून मी म्हंटल, मस्त पुस्तक आहे.' त्याने माज्याकडे बघुन हसत मान हलवली.

पाच एक मिनिटांनी तो माज्याकडे वळुन म्हणाला, 'वाचन आवडतं..?'
'प्रचंड. रीडिंग इज माय फर्स्ट लव्ह,' आजूबाजूला 'सौ' नाही हे बघत मी म्हटलं.

'किती वाजता रोज...?'

'रोज असं नाही... अं...काही खास असं ठरवलेलं नाही. इच्छा झाली कि वाचतो.' अनपेक्षित योर्करला कसं बसं खेळत मी म्हटल.

खायला आवडतं? कॉनजीक्यूटिव्ह यॉर्कर.
प्रचंड इटिंग इज माय सेकंड लव्ह.'

हो.' मग रोज जेवता की इच्छा होईल तेव्हा...??
'नाही नाही... रोज दोन वेळा.. आणि मध्ये मध्ये काही ना काही खादाडी चालु असतेच.' हिट विकेट !

तो तरुण हसला आणि म्हणाला मी दिवस भरात एक तास वाचतो. वाचल्याशिवाय झोपत नाही. अंघोळ जेवण तसच वाचन...!!



'बरा वेळ मिळतो तुम्हाला.' दयनीय चेहरा करत मी म्हटलं.

त्यावर तो तरुण म्हणाला:
वेळ मिळत नाही, मी काढतो. तसाही 'वेळ' ही जगातली सगळ्यात टेकन फॉर ग्रांटेड गोष्ट आहे असं मी मानतो. फॉर दॅट मॅटर, आयुष्यच घ्या ना ! फारच गृहीत धरतो आपण आयुष्याला ! 'मी' रिटायर झाल्यावर भरपुर वाचन करणारे' असं कोणी म्हंटल ना, की माझी खात्री आहे की, नवज्योत सिंग सिद्धुसारखा रेड्यावर हात आपटत तो 'यम हसत असेल' !

मी हसलो तसं किंचित गंभीर होत त्याने विचारल, 'तुम्ही कधी पाहिलंय यमाला..?'

मी आणखी हसु लागलो.
'आय एम प्रीटी सिरीयस. तुम्ही पाहिलंय यमाला..?
मी म्हणालो हो, दोन वर्षापुर्वी. रस्ता क्रॉस करत होतो. समोरून भरगाव गाडी आली, त्या दिव्यांच्या प्रकाश झोतातही मी अंधार पहिला. त्या दोन सेकंदात मला मृत्यूने दर्शन दिलं. त्या नंतर जागा झालो ते हॉस्पिटल मध्येच. गंभीर इजा होऊन सुद्धा मी कसाबसा वाचलो होतो. हॉस्पिटल मधुन घरी आलो ते नवा जन्म घेऊन. 'मी' देव पहिला नव्हता पण 'मृत्यू' पहिला होता. मृत्यू तुम्हाला खुप शिकवतो.

माझी मृत्यूवर श्रद्धा जडली. आजूबाजूला रोज इतके मृत्यू दिसत असूनही 'मी' अमर राहणार असं ज्याला वाटतं, तो माणुस ! तुम्हाला माहितीय, माणुस मृत्यूला का घाबरतो..?

'अर्थात' ! मृत्युनंतर त्याचे सगे सोयरे कायमचे दुरावतात. मृत्युमुळे माणसाच्या इच्छा अपुर्ण राहतात.'

मी म्हटलं. साफ चूक, माणूस यासाठी घाबरतो कारण मृत्युनंतर 'उद्या' नसतो !'
'मी समजलो नाही.'

'प्रत्येक काम आपल्याला उद्यावर टाकायची सवय असते. वाचन, व्यायाम, संगीत ऐकणे.. गंमत म्हणजे आहेत ते पैसे सुद्धा आपण आज उपभोगत नाही. ते कुठेतरी गुंतवतो. भविष्यात 'डबल' होऊन येतील म्हणुन !
या उद्या वर आपला फारसा भरवसा नसतो. पण तो आपल्या जगण्याचा एक भाग बनतो. आपण मृत्यूला घाबरतो कारण मृत्यू आपल्याला उद्या बघायची संधी देत नाही. !मृत्यू म्हणजे- आहोत तिथे, आहोत त्या क्षणी फुल  स्टॉप ! म्हणजे खेळ ऐन रंगात आलेला असताना कुणीतरी येऊन तुम्हाला खेळाच्या बाहेर काढाव, तसा मृत्यू तुम्हाला या जगातून घेऊन जातो. तुमच्यावरील या 'अन्यायाविरुद्ध' आवाज उठवायला सुद्धा तुम्ही उरत नाही. माज्या मृत्यू नंतर मी माजा 'लाडका' उद्या पाहु शकणार नाही, या हतबलतेला मनुष्य जास्त घाबरतो. म्हणुन मी हॉस्पिटल मधुन घरी आल्यावर ठरवलं. या पुढंच आयुष्य उघड्या डोळ्यांनी जगायचं. इतके दिवस जेवण नुसतेच 'गिळल'. यापुढे एकेका घासाची मजा  घ्यायची. आयुष्याची माजा घेत जगायचं.'

'म्हणजे तुम्ही नक्की काय केलं ..? माझी उस्तुकता आता वाढली होती. 
'माज्या आयुष्याची जबाबदारी मी स्वतःवर घेतली. मी माज्या आयुष्याचा CHIEF EXECUTIVE OFFICER झालो !'

कंपनीचा सी. ई. ओ. वैगरे इतपर्यंत ठीक आहे. आयुष्याचा 'सी. ई. ओ. वैगरे.. जरा जास्तच होत नाही का..? मी विचारलं.

'वेल... तुम्हाला काय वाटतं हे माज्यासाठी महत्वाच नाही. आयुष्य कसं जगायचं याचे नियम मी माज्यापुरते केलेत. त्यामुळे..'

'मग तुमच्या कंपनीत किती माणसं आहेत..? त्याला मध्येच तोडत, मस्करीच्या सुरात मी विचारलं, म्हटलं तर खुप, म्हंटल तर कोणीच नाही.' तो खांदे उडवत म्हणाला.

मला न कळल्याच पाहुन तो पुढे बोलु लागला. 'मी फक्त माज्या बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स सोबत दिल करतो. दे व्हर्चुअली कंट्रोल माय लाईफ. 
माज्या बोर्डवर विविध माणसे आहेत. फरहान अख्तर, शिवाजी महाराज, अब्दुल कलाम, चार्ली चॅप्लीन, गांधीजी, अमिताभ, हेलन केलर, जे आर डी टाटा....'



माज्या चेहऱ्यावरील बदलत जाणारे भान न्याहाळत त्याने आणखी काही नावे घेतली.   

या लोकांबद्दल वाचलं तेव्हा एक लक्षात आलं. या प्रत्येकामध्ये काहीना काही वैशिष्ट्य आहे. काही क्वालिटीजमुळे मला ही माणसं ग्रेट वाटतात. मी काय करतो…अं…उदाहरण देतो…समजा खोटं बोलण्यावाचून पर्याय नाही अशा परिस्थितीत सापडलो की माझे ‘एथिक्स डायरेक्टर’ गांधीजींना विचारतो, काय करू? मग ते सांगतील ते करतो. व्यायाम करायला जाताना सकाळी उठायचा कंटाळा आला तर माझे ‘हेल्थ डायरेक्टर’ फरहान अख्तर मला काय म्हणतील, या विचाराने मी उठून बसतो आणि व्यायाम करायला जातो. कधीतरी काहीतरी घडतं आणि खूप निराश वाटतं. मग माझ्या ‘इन्स्पीरेशन डायरेक्टर’ हेलन केलरना पाचारण करतो. त्यांना भेटून आपल्या अडचणी फारच मामुली वाटू लागतात. कधी दुःखी झालो तर ‘इंटरटेनमेंट डायरेक्टर’ चार्ली चॅप्लीन भेटायला येतात…’


माझ्या चेहऱ्यावरील विस्मयचकित भाव पाहून तो म्हणाला..’मला माहितीय की ऐकायला हे सगळं विचित्र वाटत असेल. पण एक गोष्ट सांगतो. आयुष्य जगणं ही जर परीक्षा असेल, तर प्रत्येक माणसाने स्वतःचा ‘सीलॅबस’ बनवावा हे उत्तम ! आपण अनेकदा ‘इतरांप्रमाणे’ आयुष्य जगायचा प्रयत्न करतो आणि तिथेच फसतो. जगायचं कसं? या प्रश्नावर चिंतन करणारी लाखो पुस्तके आज बाजारात आहेत. 
हजारो वर्षे माणूस या प्रश्नाचं उत्तर शोधतोय. गौतम बुद्धांनी मात्र फक्त चार शब्दांत उत्तर दिलं -Be your own light. मला तर वाटतं, याहून सोपं आणि याहून कठीण स्टेटमेंट जगात दुसरं नसेल !’
मी त्या तरुणाला नाव विचारलं. त्याने सांगितलं. आम्ही एकमेकांचा निरोप घेतला.
चार पावलं चालून गेल्यावर तो तरुण पुन्हा वळून माझ्याकडे आला. म्हणाला, ‘सगळ्यात महत्वाचं सांगायचं राहिलं.
मी एका अॅक्सिडेंटमध्ये वाचलो आणि इतकं काही शिकलो. तुम्ही…प्लीज..कुठल्या अॅक्सिडेंटची वाट पाहू नका !’ आम्ही दोघेही हसलो.
अपघात फक्त वाहनांमुळेच होतात, असं थोडीच आहे? ओळखपाळख नसलेला तो तरुणही अपघातानेच भेटला की !


घरी जायला आम्ही रिक्षात बसलो. ‘प्ले झोन’मध्ये खेळून पोरगं आधीच दमलं होतं. वाऱ्याची झुळूक रिक्षात येऊ लागली. मांडीवर बसल्या बसल्या मुलगा झोपून गेला होता. त्याच्या मऊ मऊ केसांमधून हात फिरवताना संध्याकाळच्या गप्पा आठवत होत्या.
मनात आलं, ‘आपल्या पोराने जर असे ‘बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स’ नेमले, तर त्यात ‘त्याचा बाप’ असेल का?’
परवाच्या रात्री बराच वेळ जागा राहिलो.
कोण जाणे, कदाचित हाच प्रश्न यापुढील आयुष्य ‘चवीने’ जगत राहायची उर्जा देत राहील !

प्रत्येकाने वाचावा असा नविन काळेंचा अप्रतिम लेख.